Saturday, 30 January 2021

Shri Yantra explained by Shri Anantbodh Chaitanya

What is Shri Yantra explained by Shri Anantbodh Chaitanya?

The Sanskrit term Shri yantra originates from “yan” or “yam” meaning “medium” and “tra” meaning “instrument” or “tool”. Here Shri represents wealth and Yantra is an instrument, apparatus or an amulet endowed with protective powers, its ultimate purpose is to unite us with our higher selves.


Shri Yantra holds supreme status among all mystic sciences and disciplines. Tantric gurus have collectively declared Shri yantra as the best medium for manifestation and wish fulfilment.
The Shri Yantra is considered to be the tool for obtaining and fulfilling all worldly desires and material manifestation. The Shri Yantra is a mathematically precise design and based upon Golden Proportion or Phi ratio. Everything that exists in nature, is constructed in the proportionately precise manner and this proportion is called the Golden/Phi ratio. The Shri Yantra means “holy instrument” and can also be known as the Shri Chakra or “holy wheel”. It contains all form of sacred geometry/golden ratio is mathematically precise and can also represent the union of the Divine Masculine and Feminine (The upward triangles meeting the downward triangles).


Shri Yantra has nine triangles that can be interlaced in such a way as to form 43 smaller triangles like a web; this web can be symbolic of the entire cosmos.

Staring at the central dot or ‘Bindu’ of the Shri Yantra is known and proven to create changes within the brain and the stimulation of the Pineal gland by focusing our attention on the ‘3rd eye’ area. The Pineal gland is a small endocrine gland in the brain. It produces melatonin, a serotonin derived hormone, which affects the modulation of sleep patterns in both seasonal and circadian rhythms. It’s the shape resembles a tiny pine cone (hence its name), and it is located in the epithalamus, near the centre of the brain, between the two hemispheres, tucked in a groove where the two halves of the thalamus join. 


The typical Shri Yantra with its central point (Bindu) and concentric circles of petals and other geometries are conceived of as a sacred dwelling in which the presiding deity and their entourage take up residence. So you move through each layer pay attention to what elements are being brought in.  Look at the number behind each of the segments like the 9 strings or why are there 4 triangles for the Shiva and Shakti.  
The Bindu represents the location of the highest manifestation of the deity as well as the focal point through which the deity transcends the relative plane, with its form and structure to merge into the formless consciousness.  To help visually understand, the Bindu is the centre of the Shri Yantra and the dot is the symbol of AUM – it represents the piercing, breaking or bursting through (Bindu Bhedana) and it is the final stage.  This is the very same formless consciousness in which the devotee merges with the highest truth.  The Shri Yantra is then fully activated in its Divine nature and reveals the true potential and nature of the devotee in this merging and loving Shri relationship with the Divine as the divine.


The Shri Yantra (called the Shri Chakra) is the symbol of Hindu Tantra also, which is based on the Hindu philosophy of Kashmir Shaivism.


The Shri Yantra is the object of devotion in Shri Vidya. The Shri Chakra is also known as the Nava chakra because it can also be seen as having nine levels. "Nine" comes from "Nau or Nava" of Sanskrit. Each level corresponds to a mudra, a yogini, and a specific form of the deity Tripura Sundari along with her mantra. These levels starting from the outside of the bottom layer is:


1.Trailokya Mohana or Bhupara, The earth square of three lines with four portals. This chakra fascinates the worlds. It has a mudra we call Sarva Sankshobhani mudra. Dram is the Beeja mantra of this mudra.


2. Sarva Aasa Paripuraka chakra a sixteen-petal lotus. It fulfils all desires or hopes. There is also a mudra we call Sarva Vidravani mudra. Dreem/Drim is the Beeja mantra of this mudra.


3. Sarva Sankshobahana chakra an eight-petal lotus. It is quite agitating. The mudra name of this chakra Sarvaakrshini mudra. Kleem is the Beeja mantra of this mudra.


4. Sarva Saubhagyadayaka chakra, composed of fourteen small triangles. It confers all good fortunes. It has Sarva Vashankari mudra. Bloom is the Beeja mantra.


5. Sara Arthasadhaka chakra, composed of ten small triangles. It fulfils all expectations. It has Sarvonmalini Mudra. Sah is the Beeja of this mudra.


6. Sarva Rakshakara chakra, composed of ten small triangles. It saves the devotee from all troubles. It has Sarva Mahankusha mudra. Krom is the Beeja mantra of this mudra.


7. Sarva Rogahara chakra, composed of eight small triangles. It removes all diseases. It has Sarva Khechari mudra. Hasakhapharem is the Beeja mantra.


8. Sarva Siddhiprada chakra, composed of 1 small triangle. It confers all fulfillments. It has Sarva Beeja mudra.  Hasoum Beej Mantra.


9. Sarva Anandamaya chakra, composed of a point or Bindu. It stands for attainments of Paramount bliss absolute. It has Sarva Yoni mudra. The aim is the Beej mantra.

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Friday, 29 January 2021

श्री यन्त्र मंदिर हरिद्वार की स्थापना के समय में लिखे गए श्लोक



विश्वस्मिन् ननु भूतले शुभकरो देव्यालयोऽन्यत्र कः चित्तागारविचार

राशिरचना संपूरको योऽचिरम् । 

अत्रैवाद्वयतत्त्वसिद्धभवने निर्वाणपीठाश्रमे सर्वाशापरिपूरकश्शिवकरो दिव्यालयो विद्यते ॥१ 

 इस धरती पर और इस संसार में इस श्रीमंदिर जैसा शुभ स्थान दूसरा कहां होगा , जहां चित्त रूपी भवन के विचार राशियों की रचना तत्काल पूरी हो जाती हो , अर्थात् मनोरथ जहां तुरंत पूरे हो जाते हैं । यहीं पर निर्वाण पीठ आश्रम में अद्वैत तत्व की सिद्धि का भवन है । सभी आशाओं को पूरा करने वाला शिवकर (कल्याणप्रद) दिव्य आश्रम विद्यमान है। 

यद्वात्सल्यरसेन चैव वसुधा सिक्ता दरीदृश्यते यस्याह्लादकरेण चन्द्रतरणी दिव्यौ च भव्यौ स्मृतौ । 

विश्वं यत्कृपया सदा गुणगणैः सत्यं समुज्जृम्भते तस्याः भीतिनिवारणैककुशलो दिव्यालयो दृश्यते ॥२ 

जिसके वात्सल्य रस से यह सारी धरती सिञ्चित दिखाई देती है। जिसकी आह्लादकारी किरणों से ये सूर्य और चंद्र दिव्य और भव्य शोभित हैं , और जिसकी कृपा से विश्व सदा गुणगणों से पूरित होकर, सत्य को समासादित करता है , उसी श्री का, संसार की भीति निवारण में अत्यंत कुशल, यह दिव्य मंदिर शोभायमान है। 

या ब्रह्मादिसुरेश्वरैः जनिमतां वन्द्यैस्सदा वन्दिता भक्तानां भवभीतिभञ्जनपरा भक्तिप्रदा भैरवी। 

दावाग्निर्भववासनाधिविपिने ज्ञानात्मिका या चिति: सा श्रीमन्दिरचत्वरे विलषते श्रीराजराजेश्वरी ॥३ 

 जो ब्रह्मा आदि सुरेश्वरों के द्वारा, मनुष्य श्रेष्ठों के द्वारा, राजाओं के द्वारा, सदैव वन्दित हैं भक्तों की भव-भय का नाश करने वाली हैं, और भक्ति प्रदान करने वाली भैरवी हैं, संसार की वासना रूपी जंगल के लिए वह दावाग्नि हैं, चिदानंदा व ज्ञानस्वरूपा हैं, वे श्रीराजराजेश्वरी इस मंदिर में विराजमान होती हैं। 

 न भैकाभ्रद्वन्द्वे सुभगतरवर्षे ग्रहपतौ हरिद्वारे तीरे सुरसलिलनद्या: कनखले । महाकुम्भे दिव्ये सुरवरविलासैकभवनम् महादेव्याः भव्यं भुवनकमनं दिव्यमसृजत् ।।४ 

वर्ष २०१० हरिद्वार तीर्थ में , कनखल क्षेत्र में, गंगा किनारे, दिव्य महाकुंभ में, देवताओं का विलासभवन, भव्य और भुवनों में कमनीय , यह महादेवी का श्रीमन्दिर बनाया गया है। 

निर्वाणपीठेश्वरः आचार्यविश्वदेवानन्दयतिः 

श्री श्री यन्त्र मन्दिरे हरिद्वारे श्रियं स्थापयति ॥५ 

निर्वाणपीठेश्वर आचार्य विश्वदेवानन्द यति ने हरिद्वार में श्री श्रीयन्त्र मंदिर में श्री को स्थापित किया। नत्वा गुरुं गणपतिं पितरौ जगदम्बिकासदाशिवौ च सर्वान् साधून् प्रणम्य श्रीमन्दिरं सुसंस्थापयति ॥ श्रीगणेश, गुरु, माता-पिता जगदम्बा और शिव तथा सभी साधु-संतों को प्रणाम करके इस श्रीमन्दिर की स्थापना करते हैं।

Sunday, 21 July 2013

Guru Purnima

ॐ नमो नारायणाय
   सत्संग भवन,कोलकता में  पूज्य चरणों के सानिध्य में अनंतबोध
                  


                 काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे 
                 श्रीविश्वदेवसंज्ञाय वेदांत गुरवे  नमः ।।
बड़े दुःख के साथ सूचित किया जाता है कि इस बार की गुरु पूर्णिमा गुरु जी के पार्थिव शरीर के साथ न मना कर अपितु समष्टि में व्याप्त गुरु तत्त्व के साथ मनाई जाएगीहमारे पूज्य गुरुदेव ०७ मई २०१३ को व्यष्टि से समष्टि में समाहित हो गए। वो हमारे गुरु ही नहीं अपितु प्राण धन ही थे । आज गुरु जी के न रहने से उनकी महिमा समझ में आ रही इसीलिए मै अनंतबोध बहुत ही पुराने समय से चली आ रही गुरु महिमा को शब्दों में लिखा ही नही लिख पा रहा हु । संत कबीर भी कहते हैं कि
             सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज। 
             सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए।।
             यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। 
             शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
             गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास है। गुरू की महिमा बताना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है।             
              अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुर्यो
             भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित्।।
             विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं
             सुगति कुगति मार्गौ पुण्यपापे व्यनक्ति।
             अर्थात् : सच्चा गुरु हमारे मिथ्या बोध को नष्ट कर देता है और हमें शास्त्रों के सच्चे अर्थ का बोध करा देता है। सुगति और कुगति के मार्गों तथा पुण्य और पाप का भेद प्रकट कर देता है, कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद समझा देता है, उसके बिना और कोई भी हमें संसार सागर से पार नहीं कर सकता।
             गुरू शिष्य का संबन्ध सेतु के समान होता है। गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान होता है। गुरु हमारे अंतर मन को आहत किये बिना हमें सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने का नज़रिया गुरू की कृपा से मिलता है।  
             गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
             अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।- श्री गुरुगीता
              अर्थ :गुअर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं रुअर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्तिसे ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं । शिष्यको जीवनमुक्त करनेवाले गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है । गुरु शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जा सकती है।
जैसे -१. 'गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरु:'
अर्थात: जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है।
२ . 'गरति सिञ्चति कर्णयोज्र्ञानामृतम् इति गुरु:'
अर्थात: जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है।
मंत्रदाता को भी गुरु कहा गया है, वस्तुत: मंत्र ही परम गुरु है। गुरु के उपकारों से जिसका हृदय भर आया ऐसे किसी कृतज्ञ मानव ने कहा है। आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :
                       ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान । 
                        ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥ 
गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है इसीलिए आषाढ़ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में माना जाता है ॥ 
                             ये तो बात रही गुरु महिमा की अब बात करते है शिष्यों के गुरु के प्रति कर्तव्यों की, कुम्भ मेला से पहले पूज्य गुरु जी ने मुझे एक परम दिव्य तपस्थली के दर्शन करवाए और मुझे आज्ञा की कि यहां कुछ निर्माण कार्य होना चाहिए | ये पूज्य गुरुदेव की बचपन की तपोभूमि रही दिव्य भूमि थी | यहां पर ही उनके संन्यास जीवन का आरम्भ हुआ था और परम विरक्त संत परम पूज्य स्वामी सदानंद परम हंस जी ने यहां वर्षो तपस्या की और इस भूमि को तीर्थ बना दिया|
अभी ही कुछ दिन पहले मै यहाँ पुनः आया और मेरे साथ गुरुदेव श्री के परम भक्त तिवारी परिवार के सिरमौर श्री लक्ष्मी कान्त जी तिवारी और श्री कान्त जी तिवारी भी इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आये और गुरु जी के संकल्प को पूरा करने का दृढ निश्चय दिखाया तथा यहां विराजमान पूज्य गुरुदेव श्री के साधना काल के सखा और गुरु भाई स्वामी सत्चिदानन्द परमहंस जी से मिलकर यहां गुरु जी की इच्छानुसार निर्माण कार्य के लिए धन राशी अर्पित की |
                          
      पूज्य गुरु देव श्री के बहुत सारे भक्त और शिष्य थे जो गुरु जी को बहुत मानते थे लेकिन उनमे तिवारी परिवार एक ऐसा परिवार जिसको गुरु जी भी बहुत मानते थे तथा इस परिवार के ऊपर हमारे पूर्वजों का भी आशीर्वाद हमेशा रहा है |

यह तपोभूमि परमहंस कुटिया के नाम से जानी जाती है और सीतापुर जिले के दरियापुर गाँव  में स्थित है, यहाँ से नैमिषारण्य तीर्थ भी ज्यादा दूर नहीं है , यह अत्यंत रम्य भूमि है अनेक वृक्षों से घिरी इस  भूमि में साधना के परमाणुओं को आसानी से अनुभूत किया जा सकता है , उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र ६० किलोमीटर में स्थित यह भूमि आज भी पूज्य गुरुदेव की साधना की सुगंध से परिपूर्ण है |

Tuesday, 4 June 2013

ब्रह्मलीन आ. म. निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी की अनंतबोध चैतन्य के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---


महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के  बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज  जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय  देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं।  वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ  भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई  आत्मचेतना  स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं  को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित  होना ही दृष्टि का प्रधान  विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष  की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता  है। दैहिक तल पर  कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय  व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व   भूमि में समासीन  रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और  भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका  बनायें  लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य  है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे  है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता  तथा योग्यता के साथ  ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में  व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता ---  अनन्तबोध चैतन्य

Sunday, 2 June 2013

ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज का संक्षिप्त परिचय




जन्म स्थान :
           स्वामी श्री का जन्म सन् २६ जनवरी १९४६ ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ' विश्वनाथ शुक्ला जी के परिवार में हुआ |   बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला ' रखा गया | |
वैराग्य : स्वामी श्री ने सत्य की खोज में  १४ वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया | वस्तुतः उसके  बाद  वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रक्खा | उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गाव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये | वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाए सीखी और उनमे पारंगत हुए  |  
अध्ययन : स्वामी जी ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री कृष्णानन्द जी महाराज श्री जी के सानिध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का  अध्ययन  किया |फिर देहली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की |
तपो जीवन : २०  वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन,धर्म सेवा का संकल्प लिया | पंजाब में एक बार भिक्षाठन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त  महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की  | एक ढाई गज कपरा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका १५  वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था | त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था | विद्याधययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते |
संन्यास ग्रहण : स्वामी जी सन १९६२ में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से बिधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण  के रूप हो  हुए | तभी से पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी  महाराज" कहलाए |
देश और विदेश यात्राएँ : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए  धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे  |  उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं | यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगो में वसुधैव कुटुम्बकम की  भावना का  बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा | 
निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन १९८५ में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री के ब्रह्मलीन होने का पश्चाद् स्वामी जी को समस्त साधू समाज और श्री पंचायती अखाडा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गादी पर बिठाया|
श्री यन्त्र मंदिर का निर्माण : १९८५ में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद १९९१ में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में महाराज श्री ने विश्व कल्याण की  भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन २००४ में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभूतपूर्व मंदिर को बनाने का  संकल्प लिया और सन २०१० के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराज श्री की कीर्ति पताका  को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
शिष्य एवं भक्त गण : महाराज श्री के हजारो नागा संन्यासी शिष्य हुए उनके तीन ब्रह्मचारी शिष्य हुए उनमे से प्रधान  शिष्य ब्रह्मचारी अनंतबोध चैतन्य जो देश विदेश में उनके संकल्पों को पूरा करने में तत्पर है और अध्ययन और अध्यापन में लगे रहते है महाराज श्री ने उनको २०१० में  गोविन्द मठ की  ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में भी रक्खा| दुसरे  शिष्य शिवात्म चैतन्य जो पठानकोट के आश्रम को देखते है तथा अंतिम तथा तीसरे ब्रह्मचारी  शिष्य निष्कल चैतन्य कढ़ी कलोल के आश्रम को देखते है | महाराज जी के लाखो भक्त गण हुए जिनमे से कोलकता के श्री लक्ष्मी कान्त तिवारी जी अग्रगण्य है | उनके शिष्य अहमदाबाद , दिल्ही बरोडा कोलकाता आदि भारत के सभी शहरों में और  विदेश में अमेरिका , इंग्लेंड , ऑस्ट्रेलिया ,बैंकाक , कनाडा यूरोप तथा अफ्रीका में  लाखों शिष्य महाराज श्री को अपना प्राण धन मानते है.
ब्रह्मलीन : ७ मई २०१३ को हरिद्वार के लिए आते हुए  एक भीषण दुर्घटना में महाराज श्री के प्राण व्यष्ठी से समष्टि में विलीन हो गए | उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यन्त्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुन्दरी की  पावन गोद में भू समाधी दी गई|

         
समाज सेवा में रत, सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देने वाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र, अवोध, अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन अर्पण करने वाले देव - तुल्य सन्यासी, शास्त्री महारथी, ओजस्वी वक्ता, प्रकाण्ड पंडित, युगदृष्टा श्री निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज को कोटि - कोटि प्रणाम |