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Monday 5 December 2022

श्रीविद्या का वास्तविक अर्थ

 श्रीविद्या का वास्तविक अर्थ 


 'श्रीविद्या' वेदों की प्राचीनतम एवं गुह्यतम रहस्य विद्याओं में से अन्यतम विद्या है। यह सिद्धियों का रत्नाकर एवं मोक्ष का अन्यतम साधन है। 'श्रीविद्या' श्री की विद्या है। इसमें निहित 'श्री' शब्द 'शकार, रकार, ईकार एवं बिन्दु' का कल्पवृक्ष है। यही 'षोडशी कला' भी है और भगवती त्रिपुरसुन्दरी भी। लक्ष्मीधर ने ठीक ही कहा है-

 ' षोडशी कला शकार-रेफ-ईकार-बिन्द्वन्तो मन्त्रः । एतस्यैव बीजस्य नाम श्रीविद्येति । श्रीबीजात्मिका विद्या श्रीविद्येति रहस्यम् ।'

 श्रीविद्या 'चन्द्रविद्या' है, चन्द्रकला 'अमृतकला' है, भगवती कुण्डलिनी 'अमृतलहरी' हैं और वे 'श्रीस्वरूपा' (त्रिपुरसुन्दरीस्वरूपा ) हैं।

दश महाविद्याओं में एक महाविद्या षोडशी या श्रीविद्या भी है। इसकी 'त्रिपुरसुन्दरी, राजराजेश्वरी, ललिता, कामेश्वरी, त्रिपुरा, महात्रिपुरसुन्दरी, सुभगा, बालत्रिपुरसुन्दरी' आदि अनेक नामों से पूजा की जाती है। आदि शङ्कराचार्य, भास्करराय, पुण्यानन्दनाथ आदि परमोपासक रहे हैं। पौराणिक परम्परा की दृष्टि से इसके द्वादश सम्प्रदाय और द्वादश उपासक हैं। इनका यन्त्र 'श्रीयन्त्र' कहलाता है। दश या अट्ठारह महाविद्याओं के दो कुल हैं। उनमें से एक 'काली- कुल' है और दूसरा 'श्रीकुल'। श्रीविद्या श्रीकुल से सम्बद्ध है। इस श्रीयन्त्र के मुख्यतः तीन सम्प्रदाय हैं- हयग्रीव सम्प्रदाय, आनन्दभैरव सम्प्रदाय और दक्षिणामूर्ति सम्प्रदाय। श्रीयन्त्र के अन्तरतम में जो 'बिन्दु' होता है, वही है- भगवती त्रिपुरसुन्दरी का स्वरूप, आसन एवं धाम । यही है— ब्रह्माण्ड, प्रकृत्यण्ड, मायाण्ड एवं शक्त्यण्ड का उद्भव-केन्द्र। भगवती का श्रीयन्त्र समस्त सृष्टि का रेखात्मक चित्र तो है ही; साथ ही यह अनन्त देवी-देवताओं, शक्तियों तथा समस्त रचनास्तरों, लोकों एवं आध्यात्मिक सूक्ष्म मण्डलों का भी निवासस्थान है। देवी एवं उनके यन्त्र की आराधना यद्यपि 'पशु, वीर एवं दिव्य' तीन भावो से की जा सकती है; किन्तु दिव्यभाव सर्वोत्तम होता है। शाक्तों के तीन सम्प्र- दाय प्रमुख हैं— कौलमार्ग, मिश्रमार्ग एवं समयमार्ग आदि शङ्कराचार्य समय मार्गी थे। समयमार्गी शाक्त वेदों, पुराणों, सदाचारों एवं विधि-निषेधों में आस्था रखते हैं; किन्तु कौल इस लक्ष्मणरेखा को नहीं मानते। 'समयाचार' श्रीविद्या की आन्तर पूजा का प्रतिपादक है— 'समयाचारो

नाम आन्तरपूजारतिः।' 'परमशिव' के साथ 'शक्ति' का या 'समय' के साथ

 'समया' का सामरस्य कराना ही समयाचारियों का परम लक्ष्य है। श्री सम्प्रदाय अद्वैतवादी दर्शन में विश्वास रखता है; अतः 'अहं देवी न चान्योऽस्मि' की अनुभूति ही उनका काम्य है।

श्रीविद्या के साधनापथ में भक्ति, ज्ञान एवं योग तीनों स्वीकृत हैं। षट्- चक्र-वेधन के द्वारा मूलाधारस्थ कुलशक्ति को जागृत करके उसके वियुक्त प्रियतम 'अकुल' से उसका सम्मिलन कराना भी एक साधन पथ है तथा 'ज्ञानोत्तरा भक्ति' के द्वारा (ज्ञान और भक्ति का सामञ्जस्य करके) विश्वात्मा (भगवती ललिता ) का अपनी आत्मा के रूप में साक्षात्कार करना भी एक साधन-पथ है। ये दोनों पथ श्रीविद्या में स्वीकृत हैं। श्रीविद्या की साधना में 'बहिर्याग' से उत्कृष्टतर 'अन्तर्याग' का ही आत्मीकरण माना जाता है। भगवती महात्रिपुरसुन्दरी समस्त प्राणियों की आत्मा है। वे विश्वातीत भी हैं और विश्व- मय भी। यथार्थतः तो वे 'कामेश्वर' भी हैं और 'कामेश्वरी' भी।

बैन्दवस्थान में सहस्रदल कमल है और उसमें भगवती की पूजा आदर्श पूजा है। चन्द्रमण्डल से विगलित अमृत से सिक्त श्रीचक्ररूपी त्रिपुरा की पुरी में पूजा करना ही यथार्थ पूजा है। बैन्दवपुर ही 'चिन्तामणि गृह' है। सामयिकों के मत में इसी चिन्तामणि गृह में या सहस्रदल कमल में भगवती की पूजा की जानी चाहिये; न कि बाह्य पीठ आदि पर 'समयिनां मते समयस्य सादाख्यतत्त्वस्य सपर्या सहस्रदलकमल एव न तु बाह्ये पीठादी' कहकर लक्ष्मीधर ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है।