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Thursday, 11 February 2021

Significance of Shri Yantra in Modern Times.



What is sacred geometry? 

Sacred geometry is beyond religion and doctrine, yet many of its principles have been adopted by different religions in their architecture and art. Through the centuries, architects around the world have used certain geometric principles to build their temples, monuments and cathedrals—intended as symbolic models of the universe. Sacred geometry merges the physical, tangible aspects of creation with the spiritual essence behind them. It is the meeting of the seen and the unseen, the manifest and the unmanifest, the finite and the infinite, the mundane and the profound. Sacred geometry has played an integral role in the philosophy, architecture and art of numerous cultures since time began. 

 Why we need this? 

 Throughout the process of evolution, man has always found ways to guard and secure himself by using cosmic forces. History offers us infinite insights and instances of people who’ve employed these forces of nature to their advantage in the form of talismans, yantras and various other mystic charms as a sacred geometry 

What is Shri Yantra? 

 The Sanskrit term Shri yantra originates from “yan” or “yam” meaning “medium” and “tra” meaning “instrument” or “tool”. Here Shri represents wealth and Yantra is an instrument, apparatus or an amulet endowed with protective powers, its ultimate purpose is to unite us with our higher selves. Shri Yantra holds supreme status among all mystic sciences and disciplines. Tantric gurus have collectively declared Shri yantra as the best medium for manifestation and wish fulfilment. The Shri Yantra is considered to be the tool for obtaining and fulfilling all worldly desires and for material manifestation. 

The Shri Yantra is a mathematically precise design and based upon Golden Proportion or Phi ratio. Everything that exists in nature, is constructed in a proportionately precise manner and this proportion is called the Golden/Phi ratio. The Shri Yantra means “holy instrument” and can also be known as the Shri Chakra or “holy wheel”. It contains all form of sacred geometry/golden ratio, is mathematically precise and can also represent the union of the Divine Masculine and Feminine (The upward triangles meeting the downward triangles. 

Staring at the central dot or ‘Bindu’ of the Shri Yantra is known and proven to create changes within the brain and the stimulation of the Pineal gland by focusing our attention on the ‘3rd eye’ area. The Pineal gland is a small endocrine gland in the brain. It produces melatonin, a serotonin derived hormone, which affects the modulation of sleep patterns in both seasonal and circadian rhythms. Its shape resembles a tiny pine cone (hence its name), and it is located in the epithalamus, near the centre of the brain, between the two hemispheres, tucked in a groove where the two halves of the thalamus join. The typical Shri Yantra with its central point (Bindu) and concentric circles of petals and other geometries are conceived of as a sacred dwelling in which the presiding deity and their entourage take up residence. So you move through each layer pay attention to what elements are being brought in. Look at the number behind each of the segments like the 9 strings or why are there 4 triangles for the Shiva and Shakti. 

 The Bindu represents the location of the highest manifestation of the deity as well as the focal point through which the deity transcends the relative plane, with its form and structure to merge into the formless consciousness. To help visually understand, the Bindu is the centre of the Shri Yantra and the dot is the symbol of AUM – it represents the piercing, breaking or bursting through (Bindu Vedhana) and it is the final stage. This is the very same formless consciousness in which the devotee merges with the highest truth. The Shri Yantra is then fully activated in its Divine nature and reveals the true potential and nature of the devotee in this merging and loving Shri relationship with the Divine as the divine. 

 
How Shri Yantra Works 

Exploring Yantra Dynamics Shri Yantra is an energy mapping machine. It is a blueprint that radiates a specific frequency due to its unique geometric construction. When focusing or meditating on a Shri Yantra, the mind automatically comes into alignment and resonates to the particular energy of the yantra. This sequence of resonance is magnified as one consistently meditates over it. Shri Yantra acts as a reservoir of divine energy. It is a medium through which the invincible energy acts on an individual. This channelled energy possesses an intense power to attract and manifest the desired experiences. 

 
Significance of Shri Yantra in Modern Times. 

 Primitive people began wearing amulets and yantras to protect themselves from an often frightening world. Shri Yantra guarded the user against enemies, animals and provided protection against the evil eye. In our modern societies, our fears, needs and challenges are more sophisticated in nature. In this age, we are tortured by inflation, crime, natural and man-made disasters. There are the ever-expanding inner demons such as anxiety, frustrations and mental illness too, to name but a few. The use of yantra in present-day is therefore much more relevant than ever before.

Sunday, 2 June 2013

ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज का संक्षिप्त परिचय




जन्म स्थान :
           स्वामी श्री का जन्म सन् २६ जनवरी १९४६ ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ' विश्वनाथ शुक्ला जी के परिवार में हुआ |   बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला ' रखा गया | |
वैराग्य : स्वामी श्री ने सत्य की खोज में  १४ वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया | वस्तुतः उसके  बाद  वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रक्खा | उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गाव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये | वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाए सीखी और उनमे पारंगत हुए  |  
अध्ययन : स्वामी जी ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री कृष्णानन्द जी महाराज श्री जी के सानिध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का  अध्ययन  किया |फिर देहली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की |
तपो जीवन : २०  वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन,धर्म सेवा का संकल्प लिया | पंजाब में एक बार भिक्षाठन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त  महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की  | एक ढाई गज कपरा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका १५  वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था | त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था | विद्याधययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते |
संन्यास ग्रहण : स्वामी जी सन १९६२ में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से बिधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण  के रूप हो  हुए | तभी से पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी  महाराज" कहलाए |
देश और विदेश यात्राएँ : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए  धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे  |  उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं | यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगो में वसुधैव कुटुम्बकम की  भावना का  बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा | 
निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन १९८५ में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री के ब्रह्मलीन होने का पश्चाद् स्वामी जी को समस्त साधू समाज और श्री पंचायती अखाडा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गादी पर बिठाया|
श्री यन्त्र मंदिर का निर्माण : १९८५ में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद १९९१ में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में महाराज श्री ने विश्व कल्याण की  भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन २००४ में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभूतपूर्व मंदिर को बनाने का  संकल्प लिया और सन २०१० के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराज श्री की कीर्ति पताका  को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
शिष्य एवं भक्त गण : महाराज श्री के हजारो नागा संन्यासी शिष्य हुए उनके तीन ब्रह्मचारी शिष्य हुए उनमे से प्रधान  शिष्य ब्रह्मचारी अनंतबोध चैतन्य जो देश विदेश में उनके संकल्पों को पूरा करने में तत्पर है और अध्ययन और अध्यापन में लगे रहते है महाराज श्री ने उनको २०१० में  गोविन्द मठ की  ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में भी रक्खा| दुसरे  शिष्य शिवात्म चैतन्य जो पठानकोट के आश्रम को देखते है तथा अंतिम तथा तीसरे ब्रह्मचारी  शिष्य निष्कल चैतन्य कढ़ी कलोल के आश्रम को देखते है | महाराज जी के लाखो भक्त गण हुए जिनमे से कोलकता के श्री लक्ष्मी कान्त तिवारी जी अग्रगण्य है | उनके शिष्य अहमदाबाद , दिल्ही बरोडा कोलकाता आदि भारत के सभी शहरों में और  विदेश में अमेरिका , इंग्लेंड , ऑस्ट्रेलिया ,बैंकाक , कनाडा यूरोप तथा अफ्रीका में  लाखों शिष्य महाराज श्री को अपना प्राण धन मानते है.
ब्रह्मलीन : ७ मई २०१३ को हरिद्वार के लिए आते हुए  एक भीषण दुर्घटना में महाराज श्री के प्राण व्यष्ठी से समष्टि में विलीन हो गए | उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यन्त्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुन्दरी की  पावन गोद में भू समाधी दी गई|

         
समाज सेवा में रत, सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देने वाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र, अवोध, अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन अर्पण करने वाले देव - तुल्य सन्यासी, शास्त्री महारथी, ओजस्वी वक्ता, प्रकाण्ड पंडित, युगदृष्टा श्री निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज को कोटि - कोटि प्रणाम |