Sunday, 2 June 2013

ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज का संक्षिप्त परिचय




जन्म स्थान :
           स्वामी श्री का जन्म सन् २६ जनवरी १९४६ ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ' विश्वनाथ शुक्ला जी के परिवार में हुआ |   बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला ' रखा गया | |
वैराग्य : स्वामी श्री ने सत्य की खोज में  १४ वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया | वस्तुतः उसके  बाद  वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रक्खा | उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गाव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये | वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाए सीखी और उनमे पारंगत हुए  |  
अध्ययन : स्वामी जी ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री कृष्णानन्द जी महाराज श्री जी के सानिध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का  अध्ययन  किया |फिर देहली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की |
तपो जीवन : २०  वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन,धर्म सेवा का संकल्प लिया | पंजाब में एक बार भिक्षाठन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त  महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की  | एक ढाई गज कपरा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका १५  वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था | त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था | विद्याधययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते |
संन्यास ग्रहण : स्वामी जी सन १९६२ में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से बिधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण  के रूप हो  हुए | तभी से पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी  महाराज" कहलाए |
देश और विदेश यात्राएँ : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए  धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे  |  उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं | यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगो में वसुधैव कुटुम्बकम की  भावना का  बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा | 
निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन १९८५ में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री के ब्रह्मलीन होने का पश्चाद् स्वामी जी को समस्त साधू समाज और श्री पंचायती अखाडा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गादी पर बिठाया|
श्री यन्त्र मंदिर का निर्माण : १९८५ में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद १९९१ में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में महाराज श्री ने विश्व कल्याण की  भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन २००४ में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभूतपूर्व मंदिर को बनाने का  संकल्प लिया और सन २०१० के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराज श्री की कीर्ति पताका  को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
शिष्य एवं भक्त गण : महाराज श्री के हजारो नागा संन्यासी शिष्य हुए उनके तीन ब्रह्मचारी शिष्य हुए उनमे से प्रधान  शिष्य ब्रह्मचारी अनंतबोध चैतन्य जो देश विदेश में उनके संकल्पों को पूरा करने में तत्पर है और अध्ययन और अध्यापन में लगे रहते है महाराज श्री ने उनको २०१० में  गोविन्द मठ की  ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में भी रक्खा| दुसरे  शिष्य शिवात्म चैतन्य जो पठानकोट के आश्रम को देखते है तथा अंतिम तथा तीसरे ब्रह्मचारी  शिष्य निष्कल चैतन्य कढ़ी कलोल के आश्रम को देखते है | महाराज जी के लाखो भक्त गण हुए जिनमे से कोलकता के श्री लक्ष्मी कान्त तिवारी जी अग्रगण्य है | उनके शिष्य अहमदाबाद , दिल्ही बरोडा कोलकाता आदि भारत के सभी शहरों में और  विदेश में अमेरिका , इंग्लेंड , ऑस्ट्रेलिया ,बैंकाक , कनाडा यूरोप तथा अफ्रीका में  लाखों शिष्य महाराज श्री को अपना प्राण धन मानते है.
ब्रह्मलीन : ७ मई २०१३ को हरिद्वार के लिए आते हुए  एक भीषण दुर्घटना में महाराज श्री के प्राण व्यष्ठी से समष्टि में विलीन हो गए | उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यन्त्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुन्दरी की  पावन गोद में भू समाधी दी गई|

         
समाज सेवा में रत, सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देने वाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र, अवोध, अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन अर्पण करने वाले देव - तुल्य सन्यासी, शास्त्री महारथी, ओजस्वी वक्ता, प्रकाण्ड पंडित, युगदृष्टा श्री निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज को कोटि - कोटि प्रणाम |



Friday, 15 July 2011

Guru Purnima


As you walk with the Guru, you walk in the light of Existence, away from the darkness of ignorance. You leave behind all the problems of your life and move towards the peak experiences of life. Devotional worship of the Guru is one of the most touching and elevating features of our Sanatan cultural tradition.
                According to Shvetashvatara Upanishad Guru be worshiped in the same manner as the deity - God, to attain all there is to attain on the path of God-realization.The Sanskrit root "Gu" means darkness or ignorance. "Ru" denotes the remover of that darkness. Therefore one who removes darkness of our ignorance is a Guru. Only he who removes our ultimate darkness, known as Maya, and who inspires and guides us on to the path of God-realization is the true Guru. Students also refer to their school teacher or college lecturer as guru. The connotation of the word guru in this case is one who imparts temporal knowledge (Apara Vidya) and is thus accordingly offered respect.
 गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुः गुरु देवो महेश्वराः
गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
Gurubrahma Guruvishnu Gururdevo Maheshwaraha |
Guruhu sakshaat Parambrahman tasmai Shrigurave namaha ||
"The guru is Brahma, Vishnu and Mahesh (Shiva), veneration to the Guru who is Parabrahman manifest."
The second line of the couplet does not literally mean that the Guru becomes Parabrahman - God, rather he is venerated as if God is manifesting through him.
This is subtly illustrated by another famous verse known to all Hindus:

गुरु गोविंद दाऊ खड़े काके लागू पाये बलिहारी गुरु जिनहे गोविंद दियो मिलाये
Guru Govind donu khade, kisko laagu paay,
Balihari Gurudevaki jinhe Govind diyo bataay.
The Guru and Govind -God, are present before me, to whom shall I bow down first? Glory to the Guru since he showed me Govind.

     The auspicious moment of Guru Purnima will be held in Satsang Bhawan Malapada, Bara Bazar Kolkata and Sanyas Ashram, Ellis Bridge , Ahmadabad. Our Pujya Gurudev Nirvana Pithadhishwar Acharya Mahamandleshwar Shri Shri 1008 Swami Shri Vishwadevanand ji Maharaj  will give blessing to us. 

Tuesday, 12 July 2011

श्री कपिलमुनि पञ्चकम्

अनाद्यनन्तं कमनीयवर्चसं समाधिनिष्ठं ननु कोविदां वरम्।
वरेण्य कीर्तिं कमलासना दिवि नमामि सिद्धं कपिलं महाप्रभुम् ॥1
कृपा परेशं परपक्षसाधकं स्वमातरं सांख्यमतञ्च दर्शकम् ।
सतां समक्षं समवस्थितं मुनिं नमामि शान्तं कपिलं महाप्रभुम् ॥ 2
हितं  हि लोकस्य विचिन्त्य तेजसा ददाः यो वै सगरात्मजानरुषा।
सनातनं तं सकलार्थदं विभुं नमामि सन्तं कपिलं महाप्रभुम् ॥ 3
विलोक्यलोके विधिहीनतामिना समुपद्दिष्टं भुवि सांख्यदर्शनम्।
परात्परं तं परमार्थ बोधकं नमामि सौम्यं कपिलं महाप्रभुम् ॥ 4
स्मरामि नित्यं हृदि कर्दमात्मजं विशिष्टबोधाकर्देवहुतिजम्।  
सदा सदाचार विचारपोषकं नमामि सत्यं कपिलं महाप्रभुम् ॥ 5
जिज्ञासुनां प्रबोधाय कपिलप्रीति हेतवे
विरच्यते हि पञ्चकमनन्तसमुद्धारधीः॥
 वंशस्थ वृतम् (जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ)

Monday, 11 July 2011

परम गुरु महिमा

योगारुढं परं शान्तं सौम्यरुपं गुणाकरम् ।
प्रणमाम्यतुलानन्दं चैतन्याहित चेतसम् ॥ 1
सर्वशास्त्रार्थनिष्णातं विप्रकुलसमुद्भवम् ।  
प्रणमाम्यतुलानन्दं तपोरूपं परं गुरुम॥ 2
गीतागोविंदगंगानां गवां संपूजने रतम्।
प्रणमाम्यतुलानन्दं लोकवन्द्यं महागुरुम् ॥3   
अज्ञानध्वांतविध्वंसप्रचंडमतिभास्करम् ।
प्रणमाम्यतुलानन्दं ज्ञानरूपं परं गुरुम् ॥ 4
हर्षामर्षविनिर्मुक्तं  धृतकाषायवाससम् । 
प्रणमाम्यतुलानन्दं प्रातःपूज्यं तपोधनम् ॥ 5
श्रुतिसिद्धांतज्ञातारं निजानंदात्मकं परम्।  
प्रणमाम्यतुलानन्दं शिवरूपं परं गुरुम् ॥ 6  
 निर्द्वन्दं वै सदानन्दं मुक्तप्रपंचपंजरम्।  
प्रणमाम्यतुलानन्दं विष्णुरुपं महागुरुम् ॥ 7  
आत्मानात्मविवेकिनं ज्ञानविज्ञानसंज्ञितम्।  
प्रणमाम्यतुलानन्दं ब्रह्मरुपं परं गुरुम् ॥ 8  
अष्ठश्लोकी स्तुतिरेषा पुण्यानन्दविवर्धिनी ।
विरचिता ह्यनंतेन गुरुदेवप्रसादतः ॥